Sunday, November 15, 2009

कुछ पल जिन्दगी जैसे... विडम्बना


 

कुछ पल जिन्दगी जैसे , जिंदगी के ही दामन से चुरा लिए मैंने । उन्ही जीवंत पलों को शब्दों मे पिरो कर पेश कर रहा हूँ । ये महफ़िल है मेरे दिल की , यहाँ कुछ गीत मिलेंगे सुर छेड़ते हुए , कुछ गज़लें होंगी हाथों मे जाम लिए , कुछ कवितायेँ भी मिलेंगी गहरी आँखों वाली , कुछ किस्से कुछ किरदार , इनमे से कुछ भी अगर आपके दिल को छू पाये तो खुशकिस्मत समझूंगा अपने आप को ....

जिन्दगी

बहुत सालों पहले जिन्दगी को समझने की एक कोशिश में मिली थी ये ग़ज़ल ... पेश ए नज़र है यारों ।

दर्द की एक दास्ताँ है जिन्दगी,
मौत का ही तो आइना है जिन्दगी ।

सच की पथरीली जमी पर,
झूठ का एक आसमा है जिन्दगी ।

दोस्तो से अजनबी और,
दुश्मनों से आशना है जिन्दगी ।

वक़्त बहता पानी है और,
बूँद का एक बुलबुला है जिन्दगी ।

हर कदम अंधा सफ़र है,
हादसों का सिलसिला है जिन्दगी ।
 

विडम्बना

डरी सहमी ऑंखें,
चेहरे पर हताशा,
तन पर कपड़े नदारद,
घुटनों को छाती से चिपकाये,
बेडियों में जकड़ी काया,
शून्य को घूरती हुई,
कहीं कुछ ढूँढती है शायद,
निश्ब्द्ता में भी है कोलाहल,
ह्रदय में जारी है उम्र की कवायद,
मगज एक मरघट हो जैसे,
कुछ चिताएँ जल रहीं हैं,
कुछ लाशें सडी हुई सीं,
पडी हुईं हैं, जिन पर,
भिनभिनाती है मक्खियाँ,
जैसे - कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ,
कुछ अनुत्तरित सवालों का समूह्गान जैसे,
कैसी विडम्बना है ये,
आखिर हम मुक्त क्यों नही हो पाते...???

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