Sunday, November 15, 2009

स्वार्थी कहूं या संत तुम्हें...


क्योंकि स्वार्थी हो गये थे तुम...
अपने में ईश्वर को भी नहीं पहचान पाये तुम !
तुम्हीं तो थे जो साथ लिए मुझे..
मंदिर में जाया करते
ईश्वर को सच्चे प्यार का विश्वास दिलाया करते
तब...तब मैं भाव विभोर हो देखा करती तुम्हें...
कितने लीन होकर तुम उस परम पिता को
साक्षी बना रहे थे अपने प्यार का !
और हाँ..... वह साक्षी बना भी
हर बार की तरह वह मुस्कराकर
आशीर्वाद देता भी।
तुम कितने निश्पाप मन से
ईश्वर से मुझको मांगा करते
तब उस वक्त मैं तुम्हारी आंखों में प्रेम की
निर्मल धारा बहते देखती और...
उतर जाती उस ईश्वर की प्यास में
चली जाती तुम्हारे साथ उस ईश्वर की आस में
ईश्वर को छलते तुम या मुझको छलते ?
मै तो ईश्वर को पा रही थी तुम्हारे साथ चलते !
बैखौफ़ सी उन पगडंडियों में चली जा रही थी मैं
जिनके सपने तुम दिखा रहे थे मुझे
सपनों की दुनिया में उड़ रही थी बिन पंख लगाये
द‍ृष्टा बनना था मुझे...बन गयी द‍ृष्टिहीन
छोड आये तुम मुझे उस अन्तहीन छोर पर
जहां से आगे न मंजिल थी न कोई डगर
अब...अब तो मैं हूं अकेली
पथराई पहेली सी..
लौट आई फ़िर वहीं...
जहां छला जाना ही औरत की नियति है
लेकिन जानती है.....फिर भी चलना जानती है
प्यार में ठोकर मिले तो क्या ?
प्यार में कुछ क्षण ईश्वर को तो पा ही लेती है !
तुम्हें नहीं आया ईश्वर को पाना तो क्या....
ये तुम्हारी बदनसीबी है
आज तुम मुझसे प्यार करने की गलती का प्रायश्चित कर रहे हो
और मैं...तप्त...शांत...गहरी झील सी..
औरत की तरह प्यार करके तो देखो....
ईश्वर को सच्चा मान कर तो देखो....
वह महसूस कराता है
अपने को तुम्हारे भीतर रहकर!
अब दर्द नहीं कोई गिला नहीं
न छले जाने का कोई दुख !
....फ़िर भी तुम्हारी शुक्रगुजार हूं मैं
क्योंकि किसी एक क्षण में जब मैं ईश्वर में थी...
उस तक पहुंचने का माध्यम तुम्हीं तो थे !
हां तुम्हीं...!
ऋणी रहूंगी तुम्हारी उस एक पल के लिए
जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ.....
और उस कान्हा से प्यार हुआ.......
सुना है संत ही ईश्वर के दर्शन कराते हैं....
उस तक पहुंचने का रास्ता बताते हैं...
तुम्हीं कहो उस तक पहुंचने के लिए
स्वार्थी कहूं या संत तुम्हें....?

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